समाजवादी पार्टी के गठन की मजबूत दीवार “बेनी बाबूजी” का निधन एक युग का अंत है…..

27 मार्च 2020 निधन-

समाजवादी पार्टी के गठन की मजबूत दीवार “बेनी बाबूजी” का निधन एक युग का अंत है…..

मुलायम सिंह यादव जी चाहे जिन परिस्थितियों में देश की राजनीति में जब अलग-थलग पड़ गए थे तो उन्हें समाजवादी पार्टी के गठन में जिस शख्स ने सबसे अधिक बल प्रदान किया था वे बेनी प्रसाद वर्मा जी ही थे।

1989 में केंद्र में जनता दल के सत्तासीन होने के बाद यूपी व बिहार में मुलायम सिंह यादव जी व लालू प्रसाद यादव जी का अभ्युदय किसे याद नही होगा

लेकिन संकट दोनों लोगो के समक्ष आया जिसमें कुंदन की तरह तप कर निकलना थ

।मुलायम सिंह यादव जी पर रामभक्तो पर गोली चलवाने की तोहमत थी तो जनता दल के अनेक नेताओ की टांग खिचौवल अलग,ऐसे में जूझना कोई सामान्य बात न थी।

मुलायम सिंह यादव जी यदि अपनी अलग राह न बनाते तो यूपी में जनता दल द्वारा सत्ता किसी और के हाथों में सौंप दी जाती।

सवाल सत्ता पर पकड़ की थी।कोई नही चाहता है कि सत्ता पर उसकी पकड़ ढीली हो।यूपी में मुलायम सिंह यादव जी ने पहली बार सत्तासीन होने के बाद अपनी लोकप्रियता का जो डंका बजा दिया था वह उन्हें कायम रखना था।

लखनऊ के लेमार्टनियर मैदान में बीस लाख लोगों की रैली कर मुलायम सिंह यादव जी ने दिखा दिया था कि यूपी में उनका कोई विकल्प नही है।यह रैली तत्कालीन जद नेताओं को अच्छी नही लगी थी लिहाजा मुलायम सिंह यादव जी का विकल्प ढूंढा जाने लगा था।

मुलायम सिंह यादव जी का चरखा दांव मशहूर है जो उन्होंने मुख्यमंत्री रहते एक पत्रकार साथी के कहने पर उन्ही पर लगा कर दिखा दिया था,

उसका चलना अब ऐसी परिस्थितियों में लाजमी था जब उन्हें सत्ताच्युत करने की कोशिशें तेज हो चली थीं।

चूंकि उस दौर में मैं वीपी सिंह जी के खेमे में था इसलिए उन बातों को ठीक से जानता हूँ।मुलायम सिंह यादव जी ने यूपी की सत्ता पर पकड़ बनाये रखने के लिए जनता दल तोड़ दिया।सत्ता चली गयी,मण्डल की लड़ाई भी भंवर में फंस गई लेकिन मुलायम सिंह यादव जी का विकल्प नही खड़ा हो सका।

जनता दल तोड़ने व सत्ता जाने के बाद 1992 में जब समाजवादी पार्टी के गठन की कवायद शुरू हुई तो मुलायम सिंह यादव जी अकेले थे।

उन्हें सहयोगियों की जरूरत थी।मुलायम सिंह यादव जी को पिछड़ी जातियों में एक कद्दावर नेता चाहिए था जो कोई और नही बल्कि बेनी प्रसाद वर्मा जी ही थे जिनका साथ उन्हें आवश्यक था।जनता दल तोड़ समाजवादी जनता पार्टी में चंद्रशेखर जी के साथ जाने के बाद अब पुनः नए दल को गठित करने के लिए अपने अलावे कोई कद्दावर नेता चाहिए था जिसकी तलाश मुलायम सिंह यादव जी को करनी थी।

लखनऊ से सटे लगभग 10 जिले ऐसे थे जिनमें बेनी बाबू जो मुलायम सिंह यादव जी के मंत्रिमंडल में लोक निर्माण मंत्री थे,का अत्यधिक प्रभाव था लिहाजा उन्हें जोड़ना 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन में जरूरी था।

मुलायम सिंह यादव जी ने जब समाजवादी पार्टी गठित करने का ऐलान कर बेगम हजरत महल पार्क में अधिवेशन रखा तो बेनी बाबू को लेने वे खुद गए थे

।नेताजी के जाने के बाद बेनी बाबू अधिवेशन में पँहुच मुलायम सिंह यादव जी को अपना नेता घोषित कर उनके साथ खड़े हो गए थे और यूपी में एक ऐसा क्षेत्रीय विकल्प “समाजवादी पार्टी”खड़ा हो गया था जो आज भी राष्ट्रीय पार्टियों के समक्ष 1992 से चुनौती बना हुआ है।

हम सबने वह दौर भी देखा है जब बेनी बाबू की जगह अमर सिंह ने ले लिया था और बेनी बाबू एवं आजम खान साहब जो समाजवादी पार्टी के गठन के वक्त की दो धुरियाँ थे,सपा से अलग हो गए थे।बेनी बाबू कांग्रेस में चले गए थे और चमत्कारिक रूप में कांग्रेस लोकसभा में इकाई से दहाई में पँहुच गयी थी।

परिस्थितियां बदलीं, बेनी बाबू जिस अमर सिंह को महामानव कहते थे,वे अमर सिंह सपा से दूर हुये,बेनी बाबू पुनः अपने नेता मुलायम सिंह यादव जी के पास आये और समाजवादी परचम के साथ खड़े रहते हुये अखिलेश यादव जी को भरपूर आशीर्वाद देते हुये समाजवाद का अलख जगाने लगे

लेकिन अफसोस आज वे हम सबको छोड़कर अलविदा कह गए जिसका हम समाजवादियों को सदैव दुख रहेगा
कि एक वंचित हितरक्षक मसीहा हम सब के बीच से चला गया।

मैं ऐसे महान समाजवादी नेता “बेनी बाबूजी” को कोटिश नमन करते हुये उनकी स्मृतियों के समक्ष नतमस्तक हूँ।नमन है बेनी बाबू जी!

-चंद्रभूषणसिंहयादव

कंट्रीब्यूटिंग एडिटर-“सोशलिस्ट फ़ैक्टर”

लेख सोशल मीडिया से प्राप्त

अखिलेश यादव अयोध्या में सामाजिक सौहार्द के अग्रदूत!

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव से आज भी सैकड़ों लोगों ने भेंट की और नववर्ष की बधाई दी। श्री अखिलेश यादव ने सबके मंगलमय जीवन की कामना की। आज प्रमुख रूप से फैजाबाद-अयोध्या के एक दर्जन आदरणीय महंतों और फैजाबाद के जिला काजी सहित कई प्रतिष्ठित मौलानाओं ने श्री अखिलेश यादव से भेंट कर नए साल की मुबारकबाद देते हुए उनकी कामयाबी के लिए दुआ की। साधुसंतों और मुस्लिम धर्मगुरूओं ने एक आवाज में कहा कि ‘‘समाजवादी सरकार का काम बोलता है, भाजपा सरकार में नेता बोलता है‘‘।

अयोध्या के महंतगण सर्वश्री दिलीप दास जी महाराज, हेमंतदास जी महाराज, राजीव लोचनशरण, प्रिया प्रीतमशरण, हरिमोहन शरण, राम प्रकाश शरण, बालरामयोगी रामदास जी महाराज, राघवाचार्य जी, विदुरजी, राजकुमार दास जी, राजीव त्रिपाठी जी तथा आचार्य शिवेन्द्र त्रिपाठी ने मंत्रोच्चार के साथ आशीर्वाद दिया तथा इनके साथ ही पूर्व मंत्री पवन पाण्डेय ने भी अखिलेश यादव जी से भेंट की।
इसके साथ ही फैजाबाद के जिला काजी मुफ्ती मेराज साहब के साथ मौलाना मोहिसन साहब, टाटशाह नायब इमाम मौलाना फैशल साहब, मुफ्ती शमसुल कमर साहब, मौलाना सिराज साहब, नायब काजी मुफ्ती रफीउनजमा साहब, मौलाना सलमान साहब, मोइनुद्दीन साहब तथा पूर्व मुतव्वली टाटशाह साबिर अली के साथ मोहम्मद कमर राईन और श्री हामिद जफर मीसम ने भी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से मुलाकात की।
अयोध्या के महंतगणों का कहना था कि अयोध्या संस्कृति और संस्कृत की धरती है। भाजपा सरकार ने अयोध्या में दिखावा के अलावा कुछ नहीं किया। समाजवादी सरकार के समय 24 कोसी यात्रा मार्ग में रोशनी की व्यवस्था हुई थी और भजन संध्या स्थल बना था। लेकिन भाजपा तो धर्म के नाम पर राजनीति करती रही है। उन्होंने कहा पुनः श्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में सन् 2022 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी तभी जनता को कष्टों से राहत मिलेगी।
मौलाना साहबान ने कहा कि वे श्री अखिलेश यादव का शुक्रिया अदा करने आए हैं। नया साल की मुबारकवाद के साथ दुआ है कि अखिलेश जी फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे। उन्होंने कहा कि भाजपा राज में निदोर्षों की बहुत उपेक्षा हो रही है। श्री अखिलेश यादव पर ही पूरी कौम को भरोसा है।
श्री अखिलेश यादव ने महंतगण और मौलाना साहबान के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहा कि भाजपा राज में हर व्यक्ति परेशान है। आरएसएस का मुख्य लक्ष्य सŸाा पर कब्जा करना है। आज मुल्क के हालात ठीक नहीं, हर कोई बेचैन है। सीएए, एनपीआर, और एनआरसी समाज को बांटने और उत्पीड़न करने वाले कानून है। इनके विरूद्ध जनता के अहिंसक आवाज का भी दमन किया जा रहा है। नागरिकों के अस्तित्व को चुनौती मिल रही है। संविधान और देश को बचाने के लिए समाजवादी पार्टी प्रतिबद्ध है।
श्री अखिलेश यादव ने कहा है कि समाजवादी पार्टी इंसाफ की बात करती है। समाजवादी सरकार बनने पर भगवान श्रीराम की नगरी में मठ-मंदिर, मस्जिद-गुरद्वारा, गिरजाघर और आश्रमों पर कोई टैक्स नहीं लगेगा।
गुन्नौर से नौजवान अवधेश कुमार यादव एक सप्ताह में 410 किलोमीटर की यात्रा कर लखनऊ आए और उन्होंने श्री अखिलेश यादव से भेंट की। श्री अवधेश यादव ने यात्रा के रास्ते में समाजवादी पार्टी के पक्ष में प्रचार भी किया। श्री अखिलेश यादव ने उन्हें बधाई दी।
श्री अखिलेश यादव ने आज अयोध्या धाम की पत्रिका ‘सवेरा एक संकल्प‘ का भी विमोचन किया। सवेरा परिवार के प्रमुख श्री राजीव त्रिपाठी ने बताया कि यह पत्रिका पर्यावरण संरक्षण, पक्षी संरक्षण तथा वृक्षारोपण के लिए समर्पित है।
(राजेन्द्र चौधरी)
मुख्य प्रवक्ता

मुलायम ने जब आम मरीजों को भर्ती कराया!

मार्च 1994 की बात है। मेरे रिश्ते के एक नाना जी की दोनों किडनी फेल हो गयी थीं। ये वो जमाना था जब लोग दूसरे शहर जाते थे तो अपनी जान पहचान या रिश्तेदारी में ही रुकते थे। होटल में रुकना तो कल्पना से परे था। जिनकी जान पहचान नही होती थी वो हॉस्पिटल के पार्क में ही अपना ठिकाना बना लिया करते थे।

खैर ,नाना जी को केजीएमयू ने भर्ती करने से मना कर दिया और संजय गांधी पीजीआई के लिए रिफर कर दिया।
में तो उस समय किशोरावस्था में ही था। नानाजी के साथ उनके पुत्र और भतीजे भी थे।
अगली सुबह एक टैम्पो पर रोगी को लादकर हम सब पीजीआई पहुँचे। ओपीडी में दिखाया गया। डॉक्टर साहब ने तुरन्त भर्ती के लिए लिख दिया। लेकिन कोई भी बेड नही खाली था। कहा- अगले दिन आइये,शायद कोई व्यवस्था हो जाये ?
हम फिर सुबह चौराहे से टैम्पो तय करके लाये और पीजीआई पहुंच गए। नतीजा वही ढाक के तीन पात। अगले दिन की उम्मीद में फिर बीमार सहित हम सब वापस घर लौट आये।
रोगी की तबियत बिगड़ती जा रही थी। पेशाब से खून आ रहा था, एक लोहे के तसले में बालू भरकर उसमे उन्हें बिस्तर पर ही मूत्र विसर्जन की टेम्परेरी व्यवस्था की गई।
इसी तरह से हम तीसरे दिन भी पीजीआई गए और मायूस लौट आये। बीमार को उसके हाल के हवाले करने की हमारी परंपरा कभी नही रही है। सगे सम्बन्धी अपना पूरा प्रयास करते हैं।
चौथे दिन भी वही हुआ। बेड खाली नही। नाना जी को हमने गेट के पास चादर बिछा कर लिटा रखा था।
अचानक अस्पताल में हलचल मच गई। सभी बड़े डॉक्टर गेट के पास नजर आने लगे। झाड़ू पोंछा लगना शुरू हो गया।
पूछने पर पता चला कि मुख्यमंत्री जी कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी जी को देखने आ रहे हैं। गार्ड ने आकर कहा – मरीज को सामने पार्क में ले जाओ। हम रोगी को हटा ही रहे थे कि तब तक कारों का काफिला आकर पोर्च में रुक गया और एक एम्बेसडर कार से निकलकर छोटे कद के बड़े नेता मुलायम सिंह तेज चाल में चलते हुए अंदर नज़र आये।
नेता जी नाना जी औऱ उनके जैसे 3 औरों को देखकर तुरंत रुक गए और पीजीआई के सुपरिंटेंडेंट से फौरन सवाल किया कि ये भर्ती क्यों नही है ? जबाब मिला जनरल वार्ड में बेड नही खाली हैं।
नेताजी बोले – प्राइवेट वार्ड में जगह है,वीआईपी वार्ड में जगह है क्या ? एक कमरे में चारों को रखिये, इलाज सबका होना चाहिए।
वहीं पर खड़े खड़े नेताजी ने पीजीआई को उस समय 2 करोड़ का बजट आवंटित कर दिया ताकि नए वार्ड बन सकें।
नानाजी का इलाज शुरू हो गया और वो 20 दिन तक भर्ती रहे। इसके बाद डॉक्टरों ने जबाब दे दिया कि अब इन्हें घर ले जाइए और सेवा करिए। नानाजी इसके एक हफ्ते बाद शरीर त्याग दिए।
दो महीने बाद मामा को ईलाज के दौरान खर्च हुए 60 हजार का चेक भी मुख्यमंत्री कार्यालय की डाक से प्राप्त हो गया।

मार्च 2012 में Akhilesh Yadav जी यूपी के मुख्यमंत्री बने । स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके सामने हेल्थ विभाग को पुनर्स्थापित करने की चुनौती थी। पिछली मायावती सरकार में प्रदेश का सबसे बड़ा घोटाला NRHM उनके सामने था। सरकारी अस्पतालों से रुई,पट्टी,गाज,और सिरिंज तक गायब हो चुकी थीं।
अखिलेश जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और शपथ ग्रहण करते ही अस्पतालों में एक रु के पर्चे पर 5 दिन की दवाई मुफ्त मिलने लगी,वार्डो में भर्ती मुफ्त हो गयी। कुछ दिन बाद पैथोलॉजी में जांचे मुफ्त हो गईं, गर्भवती महिलाओं का अल्ट्रासाउंड मुफ्त हो गया,एक्सरे मुफ्त हो गया।
इसी क्रम में अखिलेश सरकार ने प्रदेश में 14 नए मेडिकल कॉलेज बनवाने आरम्भ कर दिए। एम्स के लिए जमीन दी और गोरखपुर में जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारी के लिए स्पेशल बाल रोग विभाग बनवाया। 108 और 102 समाजवादी एम्बुलेंस एक फोन पर 10 मिनट में हाजिर हो मरीज और दुर्घटना में घायल को हॉस्पिटल पहुंचा देती थीं।
सनद रहे, अखिलेश सरकार में साँप काटे का टीका (ASV) और कुत्ता काटे की सुई (ARV) जैसी वैक्सीन एक रु के पर्चे में लगती थी। जो बसपा सरकार में लोग बाहर मेडिकल स्टोर से लगभग 400 रु में खरीद कर लगवाया करते थे। अखिलेश जी ने चिकित्सा के क्षेत्र में समाजवादी परम्परा को कायम रखा। सैकड़ो जरूरतमंदों को बिना जाति धर्म के भेदभाव के जनता दरबार मे लाखो रु इलाज के लिए मिल जाते थे। विवेकाधीन कोष से हजारों लोग लाभान्वित हुए।

जानकारी के लिए बता रहा हूँ, नोट कर लीजिए ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के नाम पर भगवा सरकार आई और ये सब बीते दिनों की बात हो गयी। बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री कम महंत ज्यादा वाले योगी जी निर्माणाधीन 14 मेडिकल कालेजों का बजट 2344 करोड़ से घटाकर लगभग आधा 1148 करोड़ कर चुके हैं। एमपी और यूपी के कई जिलों के रोगियों के ईलाज में सुलभ सैफई पीजीआई का बजट 90 करोड़ से घटाकर 30 करोड़ कर चुके हैं। अस्पतालों में दवाईयों का तोड़ा है, ऑक्सीजन की कमी से बच्चे मर रहे हैं। एम्बुलेंस में डीजल नही है।

याद रखिये,सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाने वाले अधिकतर पत्रकार, वकील, किसान, मजदूर,अल्पसंख्यक और बेरोजगार लोग ही होते हैं। तुलना कीजिये और समाजवादी लोगो के उस वायदे को याद कीजिये जो वो अक्सर कहते हैं। “रोटी कपड़ा सस्ती हो,दवा पढ़ाई मुफ़्ती हो !
#सत्यार्थ

लड़ाई मण्डल और कमण्डल की !

मंडल कमिशन ….Vs कमण्डल

1977 मेँ जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें मोरारजी देसाई ब्राह्मण थे जिनको जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रधान मंत्री पद के लिऐ नामांकित किया था।

चुनाव मेँ जाते समय जनता पार्टी ने अभिवचन दिया था कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वे काका कालेलकर कमीशन लागू करेंगे। जब उनकी सरकार बनी तो OBC का एक प्रतिनिधिमंडल मोरारजी को मिला और काका कालेलकर कमीशन लागू करने के लिऐ मांग की मगर मोरारजी ने कहा कि कालेलकर कमीशन की रिपोर्ट पुरानी हो चुकी है, इसलिए अब बदली हुई परिस्थिति मेँ नयी रिपोर्ट की आवश्यकता है। यह एक शातिर बाह्मण की OBC को ठगने की एक चाल थी।

प्रतिनिधिमडंल इस पर सहमत हो गया और B.P. Mandal जो बिहार के यादव थे, उनकी अध्यक्षता मेँ मंडल कमीशन बनाया गया।.

बी पी मंडल और उनके कमीशन ने पूरे देश में घूम-घूमकर 3743 जातियोँ को OBC के तौर पर पहचान किया जो 1931 की जाति आधारित गिनती के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 52% थे। मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट मोरारजी सरकार को सौपते ही, पूरे देश मेँ बवाल खङा हो गया। जनसंघ के 98 MPs के समर्थन से बनी जनता पार्टी की सरकार के लिए मुश्किल खङी हो गयी।

उधर अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व मेँ जनसंघ के MPs ने दबाव बनाया कि अगर मंडल कमीशन लागू करने की कोशिश की गयी तो वे सरकार गिरा देंगे। दूसरी तरफ OBC के नेताओँ ने दबाव बनाया। फलस्वरूप अटल बिहारी बाजपेयी ने मोरारजी की सहमति से जनता पार्टी की सरकार गिरा दी।

इसी दौरान भारत की राजनीति मेँ एक Silent revolution की भूमिका तैयार हो रही थी जिसका नेतृत्व आधुनिक भारत के महानतम् राजनीतिज्ञ कांशीराम जी कर रहे थे। कांशीराम साहब और डी के खापर्डे ने 6 दिसंबर 1978 में अपनी बौद्धिक बैँक बामसेफ की स्थापना की जिसके माध्यम से पूरे देश मेँ OBC को मंडल कमीशन पर जागरण का कार्यक्रम चलाया। कांशीराम जी के जागरण अभियान के फलस्वरूप देश के OBC को मालुम पड़ा कि उनकी संख्या देश मेँ 52% हैं मगर शासन प्रशासन में उनकी संख्या मात्र 2% है। जबकि 15% तथाकथित सवर्ण प्रशासन में 80% है। इस प्रकार सारे आंकङे मण्डल की रिपोर्ट मेँ थे जिसको जनता के बीच ले जाने का काम कांशीराम जी ने किया।

अब OBC जागृत हो रहा था। उधर अटल बिहारी ने जनसंघ समाप्त करके BJP बना दी। 1980 के चुनाव मेँ संघ ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया और इंन्दिरा जो 3 महीने पहले स्वयं हार गयी थी 370 सीट जीतकर आयी।

इसी दौरान गुजरात में आरक्षण के विरोध में प्रचंड आन्दोलन चला। मजे की बात यह थी कि इस आन्दोलन में बङी संख्या OBC स्वयँ सहभागी था, क्योँकि ब्राह्मण-बनिया “मीडीया” ने प्रचार किया कि जो आरक्षण SC, ST को पहले से मिल रहा है वह बढ़ने वाला है। गुजरात में SC, ST के लोगों के घर जलाये गये। नरेन्द्र मोदी इसी आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता थे।

कांशीराम जी अपने मिशन को दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढा रहे थे। ब्राह्मण अपनी रणनीति बनाते पर उनकी हर रणनीति की काट कांशीराम जी के पास थी। कांशीराम ने वर्ष 1981 में DS4 ( DSSSS) नाम की “आन्दोलन करने वाली विंग” को बनाया। जिसका नारा था ‘ब्राह्मण बनिया ठाकुर छोङ बाकी सब हैं DS4!’

DS4 के माध्यम से ही कांशीराम जी ने एक और प्रसिद्ध नारा दिया “मंडल कमीशन लागु करो वरना सिँहासन खाली करो।’ इस प्रकार के नारो से पूरा भारत गूँजने लगा। 1981 में ही मान्यवर कांशीराम ने हरियाणा का विधानसभा चुनाव लङा, 1982 मेँ ही उन्होने जम्मू काश्मीर का विधान सभा का चुनाव लङा। अब कांशीराम जी की लोकप्रियता अत्यधिक बढ गयी।

ब्राह्मण-बनिया “मीडिया” ने उनको बदनाम करना शुरू कर दिया। उनकी बढती लोकप्रियता से इंन्दिरा गांधी घबरा गयीं।
इंन्दिरा को लगा कि अभी-अभी जेपी के जिन्नसे पीछा छूटा कि अब ये कांशीराम तैयार हो गये। इंन्दिरा जानती थी कांशीराम जी का उभार जेपी से कहीँ ज्यादा बङा खतरा ब्राह्मणोँ के लिये था। उसने संघ के साथ मिलने की योजना बनाई। अशोक सिंघल की एकता यात्रा जब दिल्ली के सीमा पर पहुँची, तब इंन्दिरा गांधी स्वयं माला लेकर उनका स्वागत करने पहुंची।

इस दौरान भारत में एक और बङी घटना घटी। भिंडरावाला जो खालिस्तान आंदोलन का नेता था, जिसको कांग्रेस ने अकाल तख्त का विरोध करने के लिए खङा किया था, उसने स्वर्णमंदिर पर कब्जा कर लिया।

RSS और कांग्रेस ने योजना बनाई अब मण्डल कमीशन आन्दोलन को भटकाने के लिऐ हिन्दुस्थान vs खालिस्थान का मामला खङा किया जाय। इंन्दिरा गांधी आर्मी प्रमुख जनरल सिन्हा को हटा दिया और एक साऊथ के ब्राह्मण को आर्मी प्रमुख बनाया। जनरल सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया।आर्मी में भूचाल आ गया।

नये आर्मी प्रमुख इंन्दिरा गांधी के कहने पर OPERATION BLUE STAR की योजना बनाई और स्वर्ण मंदिर के अन्दर टैँक घुसा दिया। पूरी आर्मी हिल गयी। पूरे सिक्ख समुदाय ने इसे अपना अपमान समझा और 31 Oct. 1984 को इंन्दिरा गांधी को उनके दो Personal guards बेअन्तसिह और सतवन्त सिँह, जो दोनो SC समुदाय के थे, ने इंन्दिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया।

माओ अपनी किताब ‘ON CONTRADICTION’ में लिखते हैं कि शासक वर्ग किसी एक षडयंत्र को छुपाने के लिऐ दुसरा षडयंत्र करता है, पर वह नहीँ जानता कि इससे वह अपने स्वयँ के लिए कोई और संकट खङा कर देता है।’ माओकी यह बात भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य मेँ सटीक साबित होती है।

मंडल कमीशन को दबाने वाले षडयंत्र का बदला शासक वर्ग ने ‘इंन्दिरा गांधी’ की जान देकर चुकाया।

इंन्दिरा गांधी की हत्या के तुरन्त बाद राजीव गांधी को नया प्रधानमंत्री मनोनीत कर दिया गया। जो आदमी 3 साल पहले पायलटी छोङकर आया था, वो देश का ‘मुगले आजम’ बन गया। इंन्दिरा गांधी की अचानक हत्या से सारे देश मेँ सिक्खोँ के विरूद्ध माहौल तैयार किया गया। दंगे हुऐ। अकेले दिल्ली में 3000 सिक्खो का कत्लेआम हुआ जिसमें तत्कालीन मंत्री भी थे। उस दौरान राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिँह का फोन तक प्रधनमंत्री राजीव गांधीने रिसीव नहीँ किये। उधर कांशीराम जी अपना अभियान जारी रखे हुऐ थे। उन्होनेँ अपनी राजनीतिक पार्टी BSP की स्थापना की और सारे देश में साईकिल यात्रा निकाली। कांशीराम जी ने एक नया नारा दिया “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी ऊतनी हिस्सेदारी।”

कांशीराम जी मंडल कमीशन का मुद्दा बङी जोर शोर से प्रचारित किया, जिससे उत्तर भारत के OBC वर्ग मेँ एक नयी तरह की सामाजिक, राजनीतिक चेतना जागृत हुई। इसी जागृति का परिणाम था कि OBC वर्ग का नया नेतृत्व जैसे कर्पुरी ठाकुर, लालु, मुलायम का उभार हुआ।

अब कांशीराम शोषित वंचित समाज के सबसे बङे नेता बनकर उभरे। वही 1984 का चुनाव हुआ पर इस चुनाव मे कांशीराम ने सक्रियता नहीँ दिखाई। पर राजीव गांधी को सहानुभुति लहर का इतना फायदा हुआ कि राजीव गांधी 413 MPs चुनवा कर लाये। जो राजीव जी के नाना ना कर सके वह उन्होने कर दिखाया।

सरकार बनने के बाद फिर मण्डल का जिन्न जाग गया। OBC के MPs संसद मेँ हंगामे शुरू कर दिये। शासक वर्ग ब्राह्मण ने फिर नयी व्युह रचना बनाने की सोची।

अब कांशीराम जी के अभियानो के कारण OBC जागृत हो चुका था। अब शासक वर्ग के लिऐ मंडल कमीशन का विरोध करना संभव नहीँ था। 2000 साल के इतिहास मेँ शायद ब्राह्मणोँ ने पहली बार कांशीराम जी के सामने असहाय महसूस किया।

कोई भी राजनीतिक उदेश्य इन तीन साधनोँ से प्राप्त किया जा सकता है वह है-

1) शक्ति संगठन की,
2) समर्थन जनता का और
3) दांवपेच नेता का।

कांशीराम जी के पास तीनो कौशल थे और दांवपेच के मामले मेँ वे ब्राह्मणोँ से इक्कीस थे। अब यह समय था जब कांग्रेस और संघ की सम्पूर्ण राजनीति केवल कांशीराम जी पर ही केन्द्रित हो गयी।

1984 के चुनावोँ में बनवारी लाल पुरोहित ने मध्यस्थता कर राजीव गांधी और संघ का समझौता करवाया एवं इस चुनाव मेँ संघ ने राजीव गांधी का समर्थन किया। गुप्त समझौता यह था कि राजीव गांधी राम मंदिर आन्दोलन का समर्थन करेगेँ और हम मिलकर रामभक्त OBC को मुर्ख बनाते है। राजीव गांधी ने ही बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाये, उसके अन्दर राम के बाल्यकाल की मूर्ति भी रखवाईं ।

अब ब्राह्मण जानते थे अगर मण्डल कमीशन का विरोध करते है तो “राजनीतिक शक्ति” जायेगी, क्योकि 52% OBC के बल पर ही तो वे बार बार देश के राजा बन जाते थे, और समर्थन करते हैं तो कार्यपालिका में जो उन्होने स्थायी सरकार बना रखी थी वो छिन जाने खा खतरा था।

विरोध करें तो खतरा, समर्थन करें तो खतरा। करें तो क्या करें? तब कांग्रेस और संघ मिलकर OBC पर विहंगम दृष्टि डाली तो उनको पता चला कि पूरा OBC रामभक्त है। उन्होँने मंडल के आन्दोलन को कमंडल की तरफ मोङने का फैसला किया। सारे देश में राम मंदिर अभियान छेङ दिया। बजरंग दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया जो OBC था।

कल्याण सिंह, रितंभरा, ऊमा भारती, गोविन्दाचार्य आदि वो मुर्ख OBC थे जिनको संघ ने सेनापति बनाया। जिस प्रकार ये लोग हजारोँ सालो से ये पिछङो में विभीषण पैदा करते रहे इस बार भी इन्होंने ऐसा ही किया।

वहीँ दूसरी तरफ अनियंत्रित राजीव गांधी ने खुद को अन्तर्राष्ट्रीय नेता बनाने एवं मंडल कमीशन का मुद्दा दबाने के लिऐ प्रभाकरण से समझौता किया तथा प्रभाकरण को वादा किया कि जिस प्रकार उसकी माँ (इंदिरागांधी) ने पाकिस्तान का विभाजन कर देश-दुनिया की राजनीति में अपनी धाक पैदा की वैसे वह भी श्रीलंका का विभाजन करवाकर प्रभाकरण को तमिल राष्ट्र बनवाकर देगा।

वहीं राजीव गांधी की सरकार में वी.पी. सिंह रक्षा मंत्री थे।
बोफोर्स रक्षा सौदे में भ्रष्टाचार राजीव गांधी की सहायता से किया गया जिसको उजागर किया गया। यह राजीव गांधी की साख पर बट्टा था। वीपी सिंह इसको मुद्दा बनाकर अलग जन मोर्चा बनाया। अब असली घमासान था। 1989 के चुनाव की लङाई दिलकश हो चली थी। पूरे उत्तर भारत में कांशीराम जी बहुजन समाज के नायक बनकर उभरे। उन्होने 13 जगहो पर चुनाव जीता जबकि 176 जगहोँ पर वे कांग्रेस का पत्ता साफ करने में सफल हो गये।

राजीव गांधी जो कल तक दिल्ली का मुगल था कांशीराम जी के कारण वह रोड मास्टर बन गया। कांग्रेस 413 से धङाम 196 पर आ गयी। वी पी सिंह के गठबनधन 144 सीटें मिली, जिसके कारण वी पी सिंह ने चुनाव में जाने की घोषणा की और कहा कि यदि उनकी सरकार बनी तो मंडल कमीशन लागू करेंगे।

चन्द्रशेखर व चौधरी देवीलाल के साथ मिलकर सरकार बनाने की योजना वी पी सिंह द्वारा बनायी गयी। चौधरी देवीलाल प्रधानमंत्री पद के सबसे बङे दावेदार थे पर योजना इस प्रकार से बनायी गयी थी कि संसदीय दल की बैठक में दल का नेता (प्रधानमंत्री) चुनने की माला चौ. देवीलाल के हाथ में दे दी जाए। चौ. देवीलाल (इस झूठे सम्मान से कि नेता चुनने का हक़ उनको दिया गया) माला वी पी सिंह के गले में डाल दिया। इस प्रकार वी पी सिंह नये प्रधानमंत्री बने।

प्रधानमंत्री बनते ही OBC नेताओं ने मंडल कमीशन लागू करवाने का दबाव डाला। वी पी सिँह ने बहानेबाजी की पर अन्त में निर्णय करने के लिए चौ. देवीलाल की अध्यक्षता मेँ एक कमेटी बनायी।

याद रहे कि मंडल कमीशन के चैयरमैन बी. पी. मंडल यादव थे, शायद इसीलिए मंडल कमीशन की लिस्ट में उन्होने यादवों को तो शामिल कर लिया मगर जाटों को शामिल नही किया। चौधरी देवीलाल ने कहा कि इसमे जाटों को शामिल करो फिर लागू करो मगर ठाकुर वी पी सिँह इनकार कर दिया।

चौधरी देवीलाल नाराज होकर कांशीराम जी के पास गये और पूरी कहानी सुनाकर बोले मुझे आपका साथ चाहिये। कांशीराम जी बोले कि ‘ताऊ तुझे जनता ने “Leader” बनाया मगर ठाकुर ने “Ladder” (सीढी) बनाया। तुम्हारे साथ अत्याचार हुआ और दुनिया में जिसके साथ अत्याचार होता है कांशीराम उसका साथ देता है।

कांशीराम जी और देवीलाल ने वी पी सिंह के विरोध में एक विशाल रैली करने वाले थे। उसी दौरान शरद यादव और रामविलास पासवान ने वी पी सिंह से मुलाकात की। उन्होँने वी पी सिंह से कहा कि हमारे नेता आप नही बल्कि चौधरी देवीलाल है। अगर आप मंडल लागू कर दे तो हम आपके साथ रहेंगे अन्यथा हम भी देवीलाल और कांशीराम का साथ देंगे। ठाकुर वी पी सिँह की कुर्सी संकट से घिर गयी। कुर्सी बचाने के डर से वी पी सिंह ने मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा कर दी।

सारे देश मेँ बवाल खङा हो गया। Mr. Clean से Mr. Corrupt बन चुके राजीव गांधी ने बिना पानी पिये संसद में 4 घंटे तक मंडल के विरोध में भाषण दिया। जो व्यक्ति 10 मिनिट तक संसद में ठीक से बोल नहीं सकता था, उसने OBC का विरोध अपनी पूरी ऊर्जा से पानी पी-पी कर किया और 4 घंटे तक बोला।

वी पी सिंह की सरकार गिरा दी गयी। चुनाव घोषणा की हुयी और एम नागराज नाम के ब्राह्मण ने उच्चतम न्यायालय में आरक्षण के विरोध में मुकदमा (केश) कर दिया।

इधर राजीव गांधी ने जो प्रभाकरण से वादा किया था वो पूरा नही कर सके थे बल्कि UNO के दबाव मे ऊन्होँने शांति सेना श्रीलंका भेज दी थी। राजीव गांधी के कहने पर प्रभाकरण के साथी काना शिवरामन को BOMB बनाने की ट्रेनिँग दी गयी थी। जब प्रभाकरण को लगा कि राजीव गाँधी ने धोखा किया। उसने काना शिवरामन को राजीव गांधी की हत्या कर देने का आदेश दिया और मई 1991 मे राजीव गांधी को मानव बम द्वारा ऊङा दिया गया। एक बार फिर माओ का कथन सत्य सिद्ध हुआ और मंडल के भूत ने राजीव गांधी की जान ले ली।

राजीव गांधी हत्या का फायदा कांग्रेस को हुआ। कांग्रेस के 271 सांसद चुनकर आये। शिबु सोरेन व एक अन्य को खरीदकर कांग्रेस ने सरकार बनायी। पी वी नरसिंम्हराव दक्षिण के ब्राह्मण प्रधानमंत्री बने।

दूसरी तरफ मंडल कमीशन के विरोध मे Supreme Court के 31 आला ब्राह्मण वकील सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये।

लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे, पटना से दिल्ली आये। सारे ब्राह्मण-बनिया वकीलों से मिले। कोई भी वकील पैसा लेकर भी मंडल के समर्थन में लङने के लिऐ तैयार नही था।

लालू यादव ने रामजेठमलानी से निवेदन किया मगर जेठमलानी Criminal Lawyer थे जबकि यह संविधान का मामला था, फिर भी रामजेठमलानी ने यह केस लङा। मगर Supremes Court ने 4 बङे फैसले OBC के खिलाफ दिये।

1. केवल 1800 जातियों को OBC माना।
2. 52% OBC को 52% देने की बजाय संविधान के विरोध में जाकर 27% ही आरक्षण होगा।
3. OBC को आरक्षण होगा पर प्रमोशन मेँ आरक्षण नहीँ होगा।
4. क्रीमीलेयर होगा अर्थात् जिस OBC का Income 1 लाख होगा उसे आरक्षण नहीँ मिलेगा।

इसका एक आशय यह था कि जिस OBC का लङका महाविद्यालय मेँ पढ रहा है उसे आरक्षण नहीँ मिलेगा बल्कि जो OBC गांव मेँ ढोर ढाँगर चरा रहा है उसे आरक्षण मिलेगा।

यह तो वही बात हो गई कि दांत वाले से चना छीन लिया और बिना दांत वाले को चना देने कि बात करता है ताकि किसी को आरक्षण का लाभ न मिले।

ये चार बङे फैसले सुप्रीम कोर्ट के ब्राह्मण जज जी. ए. भट्टजी ने OBC के विरोध मेँ दिये। दुनिया की हर Court में न्याय मिलता है जबकि भारत की Supreme Court ने 52% OBC के हक और अधिकारों के विरोध का फैसला दिया। भारत के शासक वर्ग अपने हित के लिऐ सुप्रीम कोर्ट जैसी महान् न्यायिक संस्था का दुरूपयोग किया।

मंडल को रोकने के लिऐ कई हथकंडे अपनाऐ हुऐ थे जिसमें राम मंदिर आन्दोलन बहुत बङा हथकंडा था। उत्तर प्रदेश मेँ बीजेपी ने मजबूरी मेँ कल्याण सिंह जो कुर्मी थे उनको मुख्यमंत्री बनाया।

आपको बताता चलूं की कांशीराम जी के उदय के पश्चात् ब्राह्मणोँ ने लगभग हर राज्य में OBC मुख्यमंत्री बनाना शुरू किये ताकि OBC का जुङाव कांशीराम जी के साथ न हो। इसी वजह से एक कुर्मी को मुख्यमंत्री बनाया गया।

आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली। नरेन्द्र मोदी आडवाणी के हनुमान बने। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मंडल विरोधी निर्णय 16 नवम्बर 1992 को दिया और शासक वर्ग ने 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी। बाबरी मस्जिद गिराने मे कांग्रेस ने बीजेपी का पूरा साथ दिया। इस प्रकार सुप्रिम कोर्ट के निर्णय के बारे में OBC जागृत न हो सके, इसीलिए बाबरी मस्जिद गिराई गयी।

शासक वर्ग ने तीर मुसलमानों पर चलाया पर निशाना OBC थे। जब भी उन पर संकट आता है वे हिन्दु और मुसलमान का मामला खङा करते हैं। बाबरी मस्जीद गिराने के बाद कल्याणसिंह सरकार बर्खास्त कर दी गयी।

दूसरी तरफ कांशीराम जी UP के गांव गांव जाकर षडयंत्र का पर्दाफाश कर रहे थे। उनका मुलायम सिंह से समझौता हुआ। विधानसभा चुनाव हुए कांशीराम जी की 67 सीट एवं मुलायम सिँह को 120 सीटें मिली। बसपा के सहयोग से मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने।

UP के OBC और SC के लोगों ने मिलकर नारा लगाया “मिले मुलायम कांशीराम हवा मेँ ऊङ गये जय श्री राम।”

शासक जाति को खासकर ब्राह्मणवादी सत्ता को इस गठबन्धन से और ज्यादा डर लगने लगा।

इंडिया टुडे ने कांशीराम भारत के अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं ऐसा ब्राह्मणोँ को सतर्क करने वाला लेख लिखा। इसके बाद शासक वर्ग अपनी राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया। लगभग हर राज्य का मुख्यमंत्री ऊन्होनेँ शूद्र(OBC) बनाना शुरू कर दिये। साथ ही उन्होने दलीय अनुशासन को कठोरता से लागू किया ताकि निर्णय करते वक्त वे स्वतंत्र रहें।

1996 के चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी और दो तीन अल्पमत वाली सरकारें बनी। यह गठबन्धन की सरकारें थी। इन सरकारों में सबसे महत्वपुर्ण सरकार एच. डी. देवेगौङा (OBC) की सरकार थी जिनके कैबिनेट में एक भी ब्राह्मण मंत्री नही था। आजाद भारत के इतिहास मे पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री के केबिनेट मे एक भी ब्राह्मण मंत्री नही था। इस सरकार ने बहुत ही क्रांतिकारी फैसला लिया। वह फैसला था OBC की गिनती करने का फैसला जो मंडल का दूसरी योजना थी, क्योँकि 1931 के आंकङे बहुत पुराने हो चुके थे। OBC की गिनती अगर होती तो देश मे OBC की सामाजिक, आर्थिक स्थिति क्या है और उसके सारे आंकङे पता चल जाते। इतना ही नही 52% OBC अपनी संख्या का उपयोग राजनीतिक ऊद्देश्य के लिऐ करता तो आने वाली सारी सरकारेँ OBC की ही बनती। शासक वर्ग के समर्थन से बनी देवेगोङा की सरकार फिर गिरा दी गयी।

शासक वर्ग जानता है कि जब तक OBC धार्मिक रूप से जागृत रहेगा तब तक हमारे जाल मेँ फँसता रहेगा जैसे 2014 मेँ फंसा। शायद जाति आधारित गिनती OBC की करने का निर्णय देवेगौङा सरकार ने नहीं किया होता तो शायद उनकी सरकार नही गिरायी जाती।

ब्राह्मण अपनी सत्ता बचाने के लिये हरसंभव प्रयत्न में लगे रहे। वे जानते थे कि अगर यही हालात बने रहे थे तो ब्राह्मणों की राजनीतिक सत्ता छीन ली जायेगी।

जो लोग सोनिया को कांग्रेस का नेता नहीँ बनाना चाहते थे वे भी अब सोनिया को स्वीकार करने लगे। कांग्रेस वर्किग कमेटी मे जब शरद पवार ने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा उठाया तो आर.के. धवन नामक ब्राह्मण ने थप्पङ मारा। पी ऐ संगमा, शरद पवार, राजेश पायलट, शरद पवार, सीताराम केसरी सबको ठिकाने लगा दिया। शासक वर्ग ने गठबन्धन की राजनीति स्वीकार ली।

उधर अटल बिहारी कश्मीर पर गीत गाते गाते 1999 मे फिर प्रधानमंत्री हुऐ। अगर कारगिल नही हुआ होता तो अटल बिहारी फिर शायद चुनकर आते। सरकार बनाते ही अटल बिहारी ने संविधान समीक्षा आयोग बनाने का निर्णय लिया।

अरूण शौरी ने बाबासाहब अम्बेडकर को अपमानित करने वाली किताब ‘Worship of false gods’ लिखी। इसके विरोध मेँ सभी संगठनो ने विरोध किया। विशेषकर बामसेफ के नेतृत्व मेँ 1000 कार्यक्रम सारे देश में आयोजित किये गये। अटल सरकार ने अपना फैसला वापस (पीछे) ले लिया।
ये भी नया हथकंडा था वास्तविक मुद्दो को दबाने का। फिर 2011 में जनगणना होनी थी। मगर OBC की जनगणना नहीँ करने का फैसला किया गया।

इसलिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संख्याबल के हिसाब से शासक बनने वाला OBC वर्ग सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवादी/मनुवादी शासकों का पिछलग्गू बन कर रह गया है। वो अपना नुकसान तो कर ही रहा है साथ में अपने SC, ST भाई बंधुओं का भी नुकसान कर रहा है जो ब्राह्मणवादी सत्ता को समाप्त करने को निरंतर प्रयत्नशील हैं।

Amar Nath Yadav

नोट- यह लेख सोशल मीडिया से प्राप्त हुआ है जिसे जस का तस प्रकाशित किया गया है।

लालू के राजनीतिक जीवन का लछमिनिया फ़ैक्टर!!

…. क्या खूब लिखा है, इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

लालू जी के राजनीतिक उत्‍थान और पतन में छुपा ‘लछमिनिया’…
यहां से देखो: लालू के राजनीतिक उत्‍थान और पतन में छुपा ‘लछमिनिया’ फैक्‍टर
By जितेन्‍द्र कुमार –

इस साल की शुरुआत में नलिन वर्मा के साथ मिलकर लिखी लालू प्रसाद यादव की आत्मकथा ‘गोपालगंज से रायसीना’ उनके जीवन के राजनीतिक उतार-चढ़ाव का एक दस्तावेज़ है। इस आत्मकथा में लालू यादव ने उन तमाम छोटी-मोटी घटनाओं का जिक्र किया है जिससे उनका राजनीतिक जीवन प्रभावित रहा है। इसका मतलब यह नहीं कि यह आत्मकथा उनकी पूरी कहानी है। इसमें ऐसे कई तथ्य हैं जिनका जिक्र लालू यादव पर शोध करने वालों को लिए काफी रोचक होगा, फिर भी लालू जी ने कुछ ऐसी बातें यहां कहीं हैं जिन्‍हें ‘डी-कोड’ करके लालू यादव की सफलता और बाद में उनकी भीषण असफलता को चिह्नित किया जा सकता है।

लालू यादव अपनी आत्मकथा के अध्याय छह ‘स्वर देने वाला दीर्घकालीन क्षत्रप’ में 1991 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी जनता दल के विजय के बारे में लिखते हैं। उस चुनाव में जनता दल गठबंधन को 54 में से 48 सीटों पर सफलता मिली थी। लोगों के तरह-तरह के आकलन के बाद लालू जी लिखते हैं कि अभिजात वर्ग और मीडिया के लिए यह चौंकाने वाला था। वे किसी भी रूप में इस जीत का मानने के लिए तैयार नहीं थे।

लालू जी का कहना है, ‘समाज के उत्पीड़ित वर्गों के पक्ष में मेरे सकारात्‍मक प्रयास के लिए मुझे श्रेय देने के बजाय मुझे ऐसे जातिवादी राजनेता के रूप में चित्रित किया जिसने अगड़ी जातियों के विरुद्ध युद्ध में पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों को खड़ा कर दिया।’

इसी अध्‍याय में लालू यादव बताते हैं कि पिछले डेढ़ साल में उन्होंने क्या-क्या काम किये जिसका परिणाम चुनाव में दिखा! लालू जी ने इसे ‘लछमिनिया’ परिघटना (फेनोमेनन) की जीत बताया है। लालू जी ने लिखा है कि जब वह बाढ़ लोकसभा में चुनाव प्रचार के लिए गए थे तो पुनपुन के पास के एक गांव की महिला उनसे मिलने की कोशिश कर रही थी। सुरक्षाकर्मी उसे रोक रहे थे।

”इस बीच मेरी नजर उस पर पड़ गई। मैंने सुरक्षाकर्मियों को उसे अपने पास ले आने का निर्देश दिया। मैंने उससे पूछा, ‘कैसी हो लछ‍मिनिया, यहां पुनपुन में कैसे आई हो?’ इस पर उसका जवाब था, ‘भैया, मेरी शादी हो गयी और मेरे पति यहीं रहते हैं, मैं कुछ साल पहले यहां आयी थी। जब मैंने सुना कि आप आ रहे हैं तो मैं आपसे मिलने के लिए यहां पहुंची।”’

लालू यादव आगे लिखते हैं, ”मैंने उसके बच्चे को गोद में लिया और अपने कार्यकर्ता से उसे दो सौ रूपये देने को कहा, फिर उससे उसकी बहन के बारे में पूछा और उसे भी साथ लाने को कहा। मैंने लक्ष्मीनिया को कहा कि जब भी तुम मुझसे मिलना चाहो, मिल सकती हो, कोई भी तुम्हें नहीं रोकेगा। लछमिनिया आंसू में डूब गई। ये खुशी के आंसू थे। मैंने उसे सलाह दी कि वह अपने बच्चे को स्कूल जरूर भेजे।”

लछमिनिया कौन थी, इसकी कहानी लालू जी आगे बताते हैं। उनके अनुसार, ”पटना वेटनरी कॉलेज परिसर में चपरासी क्वार्टर में रहने के दिनों से उसे जानता था। वह क्वार्टर के बाहरी हिस्से मुसहरी में अपने माता-पिता के साथ रहती थी। 1980 के दशक में मैं मुसहरों से मिलकर सुख-दुख बांटता रहता था। मैं उनके माता-पिता और अन्य पड़ोसियों को अच्छी तरह जानता था।”

लालू यादव के अनुसार, ”लाखों लछमिनियों ने उन्हें वोट दिया था जो उनके अंदर अपना बड़ा भाई ढूंढ रही थीं।” उसी पन्ने पर लालू जी लिखते हैं, ”लछमिनि‍या अपनी गोद में जिस बच्चे को लिये थी, उसे मैं भूल नहीं पाया था। उत्सव के उस कोलाहल और रंग-रोमांच के उस माहौल में मैंने खुद से पूछाः मैंने लछमिनि‍या को अपने बच्चे को स्कूल भेजने के लिए कहा है लेकिन कौन सा स्कूल? उसके बेटे के दाखिले के लिए स्कूल आखिर था ही कहां?” इस बात को लालू जी ने कुछ क्षण के लिए समझा लेकिन बाद में पूरी तरह भुला दिया।

बिहार की शिक्षा व्यवस्था लगातार गर्त में जा रही थी। सबसे तेजी से इसका क्षरण डॉक्टर जगन्नाथ मिश्रा के कार्यकाल में हुआ था। सरकारी स्कूल से मध्यम वर्ग ने अपने बच्चों को बाहर निकाल लिया था, जो उस समय तक अपवादों को छोड़कर लगभग सवर्ण ही था। विश्वविद्यालय आर्थिक अराजकता के दौर में पहुंच गये थे, शिक्षकों को अनियमित रूप से वेतन मिल रहे थे, पढ़े-लिखे लोगों और मध्यम वर्ग ने अपने बच्चों को व्यापक स्तर पर बिहार से बाहर भेजना शुरू कर दिया था। नौकरशाही सवर्णों के हवाले थी और जो कुछ भी पिछड़े या दलित नौकरशाह थे, उनकी प्राथमिकता में भी अपना वह समाज नहीं था, जहां से वे आये थे, वे पहली बार सत्ता का आनन्द ले रहे थे!

इस किताब को पढ़कर ‘लालू यादव फेनोमेनन’ को पूरी तरह तो नहीं समझा जा सकता है लेकिन लालू यादव जैसे लोग थोड़े समय के बाद क्यों पूरी तरह असफल हो जाते हैं, इसका आकलन किया जा सकता है। सत्ता की चकाचौंध में आदमी अपने इर्द-गिर्द को तो छोड़ ही दीजिए, अपने अतीत को भी कैसे भूल जाने को बाध्‍य हो जाता है, यह किताब बताती है।

इस किताब में लालू यादव अपने विश्वविद्यालय जीवन की कहानी ‘लोहिया, जेपी और राबड़ी’ वाले अध्याय में बताते हैं। उन्हें बिहार के बहुत ही प्रतिष्ठित बिहार नेशनल (बीएन) कॉलेज में दाखिला मिल गया। इससे वह काफी खुश थे, लेकिन उनकी समस्या वेटनरी कॉलेज से बीएन कॉलेज तक जाने की थी क्योंकि इसके बीच की दूरी दस किलोमीटर थी। लालू जी के अनुसार सार्वजनिक परिवहन का वह इस्तेमाल नहीं कर पाते थे क्योंकि वह बेहद अनियमित था, जिसके चलते वे पैदल ही कॉलेज आते-जाते थे। कहानी के विस्तार में गये बगैर लालू यादव बताते हैं कि उन्‍होंने विश्वविद्यालय प्रशासन से मांग की कि गरीब विद्यार्थियों को लाने ले जाने के लिए बस की व्यवस्था करनी चाहिए जो बहुत दूर से आते हैं, ताकि विश्वविद्यालय में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित हो सके। छात्रसंध अध्यक्ष बनने के बाद 1970-71 में वीसी कालिकिंकर दत्ता ने उनकी मांग मान ली थी और दूरस्थ जगहों से छात्रों को लाने के लिए दस बसों की व्यवस्था कर दी थी।

अब इस कहानी को थोड़ा और सरलीकृत करें तो हम पाते हैं कि लालू जी को अपने छात्र जीवन का वह दौर याद था कि दूर से आने वाले छात्रों (इसमें छात्राओं का जिक्र नहीं है) के लिए बसों की सुविधा हो जिससे वे आसानी से कॉलेज आ-जा सकें। जब वह मुख्यमंत्री बनते हैं तो इस बात की जरा सा भी सुध नहीं लेते हैं कि जिस ‘प्रतिष्ठित’ कॉलेज में वह पढ़ने गये थे वह अब किस हाल में है? लालू जी लोकतंत्र की ताकत को समझते हैं (छात्रसंघ के महासचिव के रूप में ही उन्होंने बसों की व्यवस्था करवायी थी), लेकिन अपने व राबड़ी देवी के पंद्रह वर्षों के शासनकाल में संभवतः 1982-83 से विश्वविद्यालयों में बंद कराये गये छात्रसंघ का चुनाव नहीं करवाते हैं। छात्रों का कोई प्रतिनिधित्व किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय स्तर पर नहीं होता है जबकि वह खुद छात्र राजनीति से आकर मुख्यमंत्री बने हैं!

लालू जी जब मुख्यमंत्री बने थे तब तक बिहार से न सिर्फ मजदूरों का बल्कि व्यापक स्तर पर विद्यार्थियों का भी राज्य से पलायन शुरू हो गया था। विद्यार्थियों के पलायन का सबसे बुरा असर दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के अभिभावकों पर पड़ा। उनके साथ परेशानी यह थी कि वे तीन संतानों की कीमत पर अपने एक संतान को पढ़ाने के लिए राज्य से बाहर भेज पाते थे क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी। अगर लालू यादव ने बदहाल हो रही शिक्षा-व्यवस्था को संभालने की जरा सी भी कोशिश की होती तो ‘लछमिनिया फेनोमेनन’ के सभी लोग इन्हें सिर आंखों पर बैठा कर रखते! चुनावी जीत के अहंकार में वे एक तरफ तो इसे ‘फेनोमेनन’ मानते हैं लेकिन दूसरी तरफ उस समाज के ‘एस्पिरेशन’ को पूरी तरह नजरअंदाज कर जाते हैं।

बिहार की पूरी शिक्षा व्यवस्था नष्ट हो गयी, कॉलेजों में पढ़ाने वाले शिक्षक नहीं रह गए, संपन्न तबके के बच्चे बिहार से पलायन कर गये, लेकिन उसे सुधारने की दिशा में लालू-राबड़ी के शासनकाल में कुछ भी नहीं किया गया (हालांकि नीतीश कुमार ने तो इसे और रसातल में पहुंचा दिया है)। इसका असर उन समाजों पर सबसे अधिक पड़ा जिसका रहनुमा होने का दावा लालू यादव करते रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था के चौपट होने का दूरगामी असर सबसे अधिक लड़कियों पर पड़ा। अर्ध-सामंती समाज होने के कारण बिहारी समाज ने अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए बिहार से बाहर भेजने से मना कर दिया।

अपनी आत्मकथा में लालू जी कुछ ऐसे लोगों को विधान परिषद् में नामांकित करने की बात करते हैं जो हाशिये की जाति से आते थे। यह स्वागतयोग्य काम था। इसी का परिणाम कई चुनावों में दिखायी भी पड़ा, लेकिन पिछड़ा या सब-आल्टर्न ‘एस्पिरेशन’ की तरफ ध्यान न दे पाना उनके पतन की शुरुआत थी।

लालू-राबड़ी के 15 वर्षों के शासनकाल में एक भी ‘थिंक टैंक’ जैसा संस्थान नहीं बना, रिसर्च सेंटर नहीं खुले। लालू जी ने जिन लोगों को राज्यसभा या विधान परिषद् में लाया अपवादों को छोड़कर वे किसी समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे बल्कि लालू जी के चमचे थे। वे समाज की जरूरत की बात नहीं बताते थे बल्कि लालू जी की ‘महानता’ के किस्से बार-बार सुनाते रहते थे। जनता के बीच जाकर जनता से संवाद करना लालू यादव की सबसे बड़ी विशेषता थी लेकिन थोड़े ही दिनों के बाद ऐसा हो गया कि जनता और लालू जी के बीच एक दूरी बन गई। जनता की पहुंच से लालू यादव पूरी तरह बाहर हो गये। जो लालू सबके लिए सहज उपलब्ध रहते थे, बार-बार कोशिश करने के बाद भी वे अब लालू यादव से नहीं मिल पाते थे।

लालू यादव ने इसे लछमिनिया फेनोमेनन में कुछ इस रूप में स्वीकार किया है, ”मेरी पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं ने उसे मुझसे मिलाने के लिए कई प्रयास भी किया था और कई बार मेरा ध्यान इस तरफ दिलाया भी था, लेकिन मैंने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।”

वैसे लालू यादव ने अपनी किताब में स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा है, लेकिन यह ऐसा क्षेत्र है जिस पर शिक्षा की तरह ही ध्यान दिये जाने की जरूरत थी। लालू जी स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भी गरीबों को राहत पहुंचाने में असफल रहे। राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था भी पूरी तरह चरमरा गयी, जिसके चलते मजदूरों की बढ़ी मजदूरी के बावजूद बीमारी की स्थिति में न सिर्फ पूरी कमाई सेहत सुधारने में ही चली जाती थी, बल्कि वे कर्जदार भी बन जाते थे।

यह किताब इसलिए सबको पढ़नी चाहिए ताकि पता चले कि दलित-पिछड़े समाज से आये सफल राजनेता किस तरह सबसे पहले अपने ही संघर्षों को भूल जाते हैं जिसे उन्होंने बुरी तरह झेला रहता है। कैसे सत्ता की चमक में उनकी आंखें चौंधिया जाती हैं और जिनके वोट के बदौलत वे सत्ता में आए होते हैं, वही वोटर उनकी प्राथमिकता में सबसे नीचे हो जाते हैं! वे नेता अपने समाज और वोटर के लिए तो कुछ करते तो नहीं हैं बल्कि उससे दूरी भी बना लेते हैं।

वैसे, लालू यादव ने इस बात को स्वीकार भी किया है- ”मुझे जिस तरह लगातार सफलता मिल रही थी उससे मैं अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं की बात सुनने से मना कर दे रहा था।”

श्री संकेश सरदार